Wednesday 28 December 2011

अन्ना का आन्दोलन: दिल्ली मस्त, मुंबई पस्त क्यों

अन्ना का आन्दोलन: दिल्ली मस्त, मुंबई पस्त क्यों

को किसी एक मुद्दे पर भारतीय जनमानस  के साथ साथ संसद को सोचने  एवं कुछ करने पर विवश करने वाले अन्ना हजारे को  आखिर करे वैसा जनसमर्थन क्यों नहीं मिला जैसा अगस्त में दिल्ली के आन्दोलन में मिला था. इसके कारणों को जानने के पहले ये भी ध्यान रखना जरुरी है की मुंबई में जन सैलाब नहीं उमड़ा इसका कदापि यह संकेत नहीं है की जनता फिर बहार नहीं निकलेगी  

मुंबई में व्यापक जनसमर्थन की कमी के  पीछे अनेक कारण थे.. सर्वप्रथम, ये ध्यान देना जरुरी है की अगस्त के  आन्दोलन की  सफलता में टीम अन्ना  के संगठनात्मक कौशल के साथ सरकार की दमनकारी नीतियों ने अहम् भूमिका निभाई थी. देश ने ४ जून को स्वामी रामदेव द्वारा आयोजित अनशन में मध्य रात्रि की बर्बरता को भुला नहीं था, की सत्ता के गलियोरों से अनशन को कुचलने की तयारी ने जन मानस को उद्वेलित करे दिया था .महंगाई एवं आम जीवन के भ्रस्टाचार से त्रस्त जनता को यह नागवार गुजरा की लोकतंत्र की दुहाई देने वाली ये सरकार आखिर लोगों को विरोध करने का भी अधिकार क्यों नहीं देना चाहती है. सुबह को शांन्ति के लिए खतरा बताते हुए अन्ना को जेल में डालना, फिर जन समर्थन देखते हुए रिहा करना और पुनश्च  अन्ना द्वारा  अनशन स्थल मिले  बिना निकलने से इनकार करना, जनता को अपनी  ताकत समझने का जरिया बन गया .

इससे भी बरी बात तब हुई जब अनशन करने की लिए रामलीला मैदान सरकार को मिला गयी. जनता को पहली बार अपनी ताकत का अहसास हुआ और जो भरोस टीम  अन्ना के सदस्य दिला रहे थे  उसपर उनको यकीन हो गया.. जनता को लगा की हमारी मांग निश्चित रूप से पूरी  होगा. इसने पुरे देश को जोर दिया. लोकपाल बिल इस आन्दोलन से पास हो जायेगा और ये आजादी की दूसरी लड़ाई है इस बात को समझाने में टीम अन्ना सफल हो गयी थी...पर इस बार जब मुम्बई में आन्दोलन हो  रहा था तब जनता को ही नहीं अरविन्द केजरीवाल एवं किरण बेदी जैसे शीर्ष नेत्रित्व की बातों से यह अहसास जनता  को नहीं हुआ...यह मानव स्वाभाव है वह हर उस चीज में जुड़ना चाहती है जिसमे उसे लगता है की सफलता निश्चित. है....मुंबई में लोगों को यही एहसास हुआ की यह एक निर्णायक लड़ाई न होकर आन्दोलन का एक चरण है . इधर संसद में चल रही कार्यवाही से उनको लगा की संसद को जो करना था कर दिया अब आन्दोलन करने से भी कोई फायदा नहीं है 

तीसरी बात यह हुई की दिल्ली में अन्ना ने आमरण अनशन का आह्वान किया था....इस आह्वान से हर एक भारतीय में यह सन्देश गया की  जान  की बाजी लगाने के लिए एक बुजुर्ग बैठा है और कम से कम इस आन्दोलन में जाकर अपनी आहुति जरुर दी जाई .सरकार ने भी जब जब अनशन के औचित्य पर सवाल दागे, लोगों को लगा आखिर सरकार भ्रस्टाचार मिटाने के बजाई अन्ना एवं आन्दोलन को क्यों निशाना बना रही है. समर्थन बढ़ता गया..ऐसा कुछ मुंबई में नहीं हुआ ..सीमित अनशन ने लोगों में वह उत्साह नहीं पैदा किया जो दिल्ली के अनशन ने किया .इस अनशन को सीमित स्वरुप देने में दिग्विजय सिंह की भी अहम् भूमिका रही जिन्होंने बार बार कटाक्ष कर टीम अन्ना को भी  साथ में अनशन करने पर मजबूर कर दिया..

चौथी बात यह रही की  अन्ना के प्रमुख सदस्यों की कर्मभूमि दिल्ली रही है जहाँ इनके निजी समर्थको की भारी तादाद है तथा सामाजिक संस्थाओं से भी अच्छे सम्बन्ध थे...कही न कही यह भी दीखता है की दक्षिण पंथी एवं धार्मिक परम्परों वाले सामजिक कार्यकर्ता इस आन्दोलन से अनाय्न्य कारणों  से नहीं  जुड़े.. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उदासीनता और श्री रविशंकर के कार्यकर्ता के उदासीनता भी एक वजह रही..हरिद्वार से संचालित युग निर्माण योजना, जिनके हजारों कार्यकर्ता हर जिले में रहते हैं उन्होंने भी दिल्ली के आन्दोलन को खुला समर्थन दिया था. शांतिकुंज, हरिद्वार के प्रमुख श्री प्रणव पंड्या के आह्वान से भी बहुत लोग जुटे..स्थानीय मीडिया एवं नगर के प्रमुख लोगों ने भी जो सकारात्मक रवैया दिल्ली में अपनाया वह मुंबई मे नदारद थी क्योंकि शिव सेना एवं बाल ठाकरे का विरोध था 

 दिल्ली का आन्दोलन देश के लिया एक नया अनुभव था और हर चीज़ एक नए जोश का संचार करते हुए अधिक से अधिक लोगों को जोड़ते जा रही थी..इस बार प्रक्रिया से लेकर बयान भी लोगों के सुने हुए थे. भीड़ तब जुटती है जब सफलता निश्चित होती है. अभी अनिश्चितता का वातावरण है , इसलिए जनता रूपी शेर मांद में है..जब शिकार निश्चित लगेगा जनता फिर बहार आएगी..और जनता न अन्ना हजारे के लिए बहार आई ठिया न स्वामी रामदेव के लिए, न वह कांग्रेस के विरोध के लिए सड़क पर थी न भारतीय जनता पार्टी के समर्थन के लिए एकजुट हुई थी...जनता भ्रस्टाचार, महंगाई से लड़ने वाली एक इमानदार लौ दिखी थी..इसलिए आई थाई...आगे भी आएगी ....हर उस व्यक्ति के साथ आएगी जो उसे लगेगा की वह उसके लिए खडी है.